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हिंदी पत्रकारिता दिवस: गौरवशाली अतीत का गुणगान

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आज 30 मई को  ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ है..हमारे गौरव और गर्व का दिन। यह ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ से हिंदी पत्रकारिता का परचम लहराने वाले पंडित युगल किशोर शुक्ल जैसे महारथियों और उनके बाद इस गौरवशाली विरासत और परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजने/संवारने और विकसित करने वाले तमाम दिग्गज संपादकों और पत्रकारों का पुण्य स्मरण करने का दिन है। इस पवित्र पेशे की गुणवत्ता को कायम रखने वाले ‘नींव के पत्थरों’ से मौजूदा पीढ़ी को बताने का दिन है।  इसके पहले कि आप में से कोई यह टिप्पणी करें कि ‘उदन्‍त मार्त्‍तण्‍ड’ के ध्वजवाहक का नाम युगल किशोर शुक्ल नहीं बल्कि जुगल किशोर शुक्ल था तो आपकी जानकारी के लिए मैं यहां पद्मश्री से सम्मानित और अपनी तरह के इकलौते माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान, भोपाल के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार विजय दत्त श्रीधर का स्पष्टीकरण उद्धृत करना चाहूंगा। उन्होंने अपनी एक पोस्ट में बताया है कि “बांग्‍ला में ‘य’ का उच्‍चारण ‘ज’ होता है। इसलिए उन्‍हें पं. जुगल किशोर शुक्‍ल भी कहा जाता है।” मुझे भी इस अनूठे संस्थान के परामर्श मंडल का सदस्य होने का गौरव हासिल ...

तो हो जाए…एक कप अदरक इलायची वाली चाय!!

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गरमागरम चाय की चुस्की के साथ अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस की शुभकामनाएँ..हर साल आज के दिन यानि 21 मई को अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस (International Tea Day) मनाया जाता है, जो न केवल एक पेय की महिमा का उत्सव है, बल्कि इसके पीछे छिपी सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक कहानियों का भी सम्मान करता है।   चाय, जिसे भारत में "चाय" और दुनिया के कई हिस्सों में "टी" के नाम से जाना जाता है, सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक जीवनशैली, परंपरा और आत्मीयता का प्रतीक है। वैसे तो, चाय की कहानी हजारों साल पुरानी है, जो चीन से शुरू होकर विश्व के कोने-कोने तक फैली लेकिन भारत में चाय ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान लोकप्रिय हुई, और आज यह देश की आत्मा का हिस्सा है। असम, दार्जिलिंग और नीलगिरी की चाय ने विश्व स्तर पर अपनी सुगंध और स्वाद से पहचान बनाई है।   चाय सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि संस्कृतियों को जोड़ने का माध्यम है। भारत में सुबह की चाय परिवार के साथ बातचीत का बहाना है, तो दोस्तों के साथ "चाय पर चर्चा" विचारों का आदान-प्रदान। चाय उद्योग लाखों लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है। भारत, चीन, श्रीलंका, और ...

सौ रुपए में मूक संवाद..!!

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सरहद पर स्थित एक कस्बे में एक व्यक्ति रोज अपने शहर के एटीएम में जाता और  मात्र ₹100 निकालकर वापस लौट आता। उसका यह सिलसिला लगभग रोज चलता रहा । उस एटीएम में तैनात गार्ड को भी आश्चर्य होता कि यह व्यक्ति रोज केवल ₹100 निकालने आता है जबकि वह चाहे तो सामान्य लोगों की तरह एक बार में अपनी जरूरत की राशि निकाल सकता है और बार-बार एटीएम आने से भी बच सकता है, लेकिन अपनी नौकरी की सीमाओं के कारण वह चुपचाप देखता रहता है और कुछ नहीं पूछता।  उस व्यक्ति के रोज आने की वजह से स्वाभाविक तौर पर उनमें नमस्कार जैसा शुरुआती संवाद भी होने लगा । जब उस व्यक्ति के एटीएम आने का यह सिलसिला एक पखवाड़े से भी ऊपर तक चलता रहता है तो गार्ड का धैर्य जवाब दे गया और उसकी जिज्ञासा हिलोरे मारने लगी । अंततः गार्ड ने एक दिन उस व्यक्ति को रोककर पूछ ही लिया  कि साहब,मैं, कई दिन से देख रहा हूं कि आप प्रतिदिन एटीएम आते हैं और केवल ₹100 निकाल कर चले जाते हैं जबकि आप चाहे तो एक ही बार में आपकी जरूरत का पैसा निकाल सकते हैं।  गार्ड के सवाल पर उस व्यक्ति ने मुस्करा कर जो जवाब दिया उससे गार्ड की आँखें भी नम हो गईं। उस व...

क्या है मध्यप्रदेश की पहचान…पोहा जलेबी या कुछ और !!

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लिट्टी चोखा कहते ही हमारे सामने बिहार की छवि उभर आती है। वही, बड़ापाव बोलते ही महाराष्ट्र याद आने लगता है। इडली-बड़ा या डोसा सुनते ही तमिलनाडु से लेकर आंध्र प्रदेश तक तस्वीर सामने आ जाती है और मोमोज सुनते ही पूर्वोत्तर की झलक मिल जाती है… लेकिन, क्या हमारे अपने प्रदेश मध्य प्रदेश का ऐसा कोई खानपान है जिसका नाम लेते ही पूरे प्रदेश की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती हो? दरअसल, यह प्रश्न हाल ही में सामने आया जब हमारे प्रदेश की यात्रा पर आए एक परिचित ने पूछा कि जिसतरह हर राज्य के कुछ खान-पान,कपड़े, हस्तशिल्प या अन्य सामग्री वहां की पहचान है तो मध्य प्रदेश की पहचान क्या है? सवाल जरूरी भी है और मौजू भी।  आखिर, हर राज्य की अपनी एक पहचान होती है और होनी भी चाहिए।  यह पहचान उस राज्य की संस्कृति, परंपरा और मोटे तौर पर वहां के उत्पादों की झलक पेश करती है । अब कुछ लोग कह सकते हैं कि हम भी ‘दाल बाफले’ को अपने प्रदेश की पहचान के तौर पर प्रस्तुत कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, दाल बाफले लोकप्रिय व्यंजन है लेकिन इसकी लोकप्रियता मालवा क्षेत्र में ज्यादा है जबकि बुंदेलखंड, बघेल या अन्य क्षेत्र में लोग ...

अपनों और अपनेपन का अहसास कराती है ‘आरसी अक्षरों की’

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कविता महज कुछ शब्दों को लिपिबद्ध करना या मन में आए विचारों को लयात्मक रूप देना भर नहीं है बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेदारी है। कविता के जरिए या कहें की साहित्य की किसी भी विद्या के जरिए रचनाकार समाज से रूबरू होने और समाज को आइना दिखाने जैसे दोनों ही काम करते हैं । कभी वह अपने लेखन से समाज को उसकी असलियत से वाकिफ  कराता है तो कभी समाज में व्याप्त रूढ़ियों को सामने लाकर बदलाव का वाहक बनने का प्रयास करता है। सत्तर के दशक में जन्मी हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसने सामाजिक परंपराओं को भी जिया है तो सतत बदलाव की प्रक्रिया की साक्षी भी रही है। इस पीढ़ी को कंडे और चूल्हे का भान भी है तो गैस से लेकर इंडक्शन और उसके बाद तक के आविष्कारों के उपयोग का तरीका भी आता है। यही कारण है कि पेशे से हिंदी की सम्मानित शिक्षिका और कवियत्री डॉ मोना परसाई का कविता संग्रह ‘आरसी अक्षरों की’ हमें अपने और अपनेपन के इन्हीं अहसासों से जोड़ती है । यह हमें गांव, घर, चौपाल से लेकर महानगरों तक की प्रवाहमान यात्रा कराता है। ‘आरसी अक्षरों की’ सही मायने में भूत\भविष्य\वर्तमान के बीच का सेतु है। खुद लेखिक...

बिटिया की कविता मम्मी पापा के नाम..!!

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अब इसे मम्मी-पापा से एक हजार किमी से ज्यादा की दूरी कहें या फिर पत्रकार पिता और लेखक मां के संस्कार का असर...बिटिया,पहले ब्लॉगर बनी और अब उसने लिखी पहली कविता (काव्य अभिव्यक्ति  या आधुनिक कविता कहना ज्यादा उचित है)...हो सकता है कविता की कसौटी पर यह कच्ची हो लेकिन भावनाओं के लिहाज से पूरी पक्की है । कविता के शब्द जहां आत्मविश्वास का अहसास कराते हैं, वहीं दिल से आंखों की दूरी को पलभर में पाट देते हैं। हम इसे "बिटिया की कविता मम्मी-पापा के नाम" जैसा अच्छा सा शीर्षक भी दे सकते हैं...पढ़िए, तकनीकी से ज्यादा भाव से,शब्द नहीं मनोभाव से और  कुल मिलाकर ♥️ से। 'अब मैं जीना सीख गई हूं' मम्मी-पापा, आपकी ये नन्हीं सी जान अब सचमुच बड़ी हो गई है। अब जिंदगी जीना  सीख गई हूं मैं।  दुनिया न  बहुत बुरी है..!  बचपन से  यही बताते थे न...? सच कहते हो आप  ये दुनिया  सच में बहुत बुरी है,  पर मैंने भी न,  दुनिया से डील करना  सीख ही लिया है।  अब न ,अँधेरे से  डर नहीं लगता  रात को अचानक  नींद खुलने पर अब  सहम नहीं  जाती हूं ...

बोझ से कराहते पहाड़ों को चाहिए राहत का मलहम !!

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बढ़ती भीड़ से पहाड़ कराह रहे हैं और वाहनों की बेतहाशा संख्या उनका कलेजा छलनी कर रही है। फिर भी पर्यटक बेफिक्र हैं और पहाड़ों के पहरेदार यानि प्रशासन निश्चिंत । पहाड़ लगातार इशारा कर रहे हैं, खुलेआम संकेत दे रहे हैं और कई बार सीधी चेतावनी भी, फिर भी वीकेंड पर शिमला से लेकर मसूरी तक और मनाली से लेकर नैनीताल तक पर्यटकों और उनके वाहनों का जाम लगा है। एक घंटे का सफर 6 से 8 घंटों में हो रहा है। इसके बाद भी, पहाड़ों पर जाने वालों की संख्या घटने की बजाए लगातार बढ़ ही रही है। यह स्थिति किसी एक पहाड़ी शहर या राज्य की नहीं है बल्कि देश के तमाम पर्वतीय राज्य लोगों और वाहनों की बेलगाम भीड़ से घायल हो रहे हैं। धूल, धुआं,कचरा,शोर और भीड़ का दबाव पहाड़ों का सीना घायल कर रहे हैं। वैसे, तो कमोवेश सभी पर्वतीय इलाकों का एक जैसा हाल है लेकिन शिमला जैसे शहर तो बर्बादी की कगार पर हैं। शिमला के हिमाचल प्रदेश की राजधानी और एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल होने के कारण, पिछले कुछ दशकों में वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी गई है। इससे न केवल पर्यावरणीय संतुलन पर असर पड़ रहा है, बल्कि पहाड़ों की भौगोलिक संरचना और ...

‘अब मैं बोलूंगी’... एक पठनीय हकीकत!!

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जब किसी पुस्तक के पहले ही पेज पर लिखा हो कि ‘पत्रकारिता में मिले सभी दोस्तों और दुश्मनों को प्यार के साथ समर्पित..’, तो हम उस किताब के तेवरों का अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं और जब किताब डायरी की शक्ल में हो और डायरी भी किसी खाँटी पत्रकार की हो तो सोने पर सुहागा ही समझो।   ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर’..मार्का शैली में हमने यह तो समझ ही लिया था कि जानी मानी पत्रकार स्मृति आदित्य ने यदि अपनी डायरी को ‘अब मैं बोलूंगी’ शीर्षक के साथ सार्वजनिक कर दिया है तो जाहिर है कई लोगों की, उनकी डायरी में शामिल किरदारों की और दोस्तों-दुश्मनों की खैर नहीं।     होना तो यही चाहिए था, लेकिन सुसंकृत,संस्कारी और सुलझे हुए व्यक्तित्व के कारण स्मृति बखिया तो उधेड़ती हैं लेकिन संकेतों में। किसी का नाम लेकर उसकी भद नहीं पीटती बल्कि इशारों में अंदर तक भेद देती हैं। अब जो किरदार हैं वे तो पन्ना-दर-पन्ना समझ जाते हैं कि स्मृति की बेधड़क डायरी क्या कह रही है और यही इस किताब ‘अब मैं बोलूंगी’ की सबसे अच्छी बात है कि यह पूरे सम्मान के साथ कलई खोलती है।    यह पुस्तक पत्रकारिता ही न...

रेल यात्रा: विरासत से विकास तक

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भारतीय रेल की अब तक की यात्रा विरासत और विकास के संगम को दर्शाती है। 1853 में, जब पहली ट्रेन मुंबई से ठाणे तक दौड़ी, यह केवल एक यातायात साधन नहीं, बल्कि भारत में आधुनिकता की शुरुआत थी। उन भाप इंजनों की सीटी से लेकर आज की सेमी-हाई-स्पीड वंदे भारत एक्सप्रेस तक, भारतीय रेल ने 170 वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है। यह न केवल शहरों और गांवों को जोड़ती है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता को भी एक सूत्र में पिरोती है। पुराने ज़माने की स्लीपर कोच की खिड़कियों से झांकती हवाएं हों या आधुनिक ट्रेनों की वातानुकूलित सुविधाएं, हर यात्री की कहानी भारतीय रेल के साथ जुड़ी है। आज, स्वदेशी तकनीक और डिजिटल नवाचारों के साथ, भारतीय रेल आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक बन चुकी है। डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट्स, और अमृत स्टेशनों का स्मार्ट आधुनिकीकरण इसकी नई उड़ान को दर्शाते हैं। यह यात्रा केवल पटरियों पर नहीं, बल्कि भारत के सपनों और आकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ रही है, जो विरासत को संजोते हुए विकास की नई ऊंचाइयों को छू रही है। मैने अपने इस रेल वृतांत को बंद होती मीटरगेज ट्रेन क...

मादक गंध से अलमस्त माहौल

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मौसम में धीरे-धीरे गर्माहट बढ़ने लगी है और इसके साथ ही बढ़ने लगी है आम की मंजरियों की मादक खुशबू...हमारे आकाशवाणी परिसर में वर्षों से रेडियो प्रसारण के साक्षी आम के पेड़ों में इस बार भरपूर बौर/मंजरी/अमराई/मोंजर/Blossoms of Mango दिख रही है और पूरा परिसर इनकी मादक गंध से अलमस्त है....ऐसा लग रहा है  जैसे धरती और आकाश ने इन पेड़ों से हरी पत्तियां लेकर बदले में सुनहरे मोतियों से श्रृंगार किया है और फिर बरसात की बूंदों से ऐसी अनूठी खुशबू रच दी है जो हम इंसानों के वश में नहीं है। चाँदनी रात में अमराई की सुनहरी चमक और ग़मक वाक़ई अद्भुत दिखाई पड़ रही है।  अगर प्रकृति और इन्सान की मेहरबानी रही तो ये पेड़ बौर की ही तरह ही आम के हरे-पीले फलों से भी लदे नज़र आएंगे.....परन्तु आमतौर पर सार्वजनिक स्थानों पर लगे फलदार वृक्ष अपने फल नहीं बचा पाते क्योंकि फल बनने से पकने की प्रक्रिया के बीच ही वे फलविहीन कर दिए जाते हैं....खैर,प्रकृति ने भी तो आम को इतनी अलग अलग सुगंधों से सराबोर कर रखा है कि मन तो ललचाएगा ही..महसूस कीजिए कैसे स्वर्णिम मंजरी की मादकता चुलबुली ‘कैरी’ बनते ही भीनी भीनी खुशबू से मन को लुभा...